Sunday 21 October 2018


उड़ना मुझको पंख खोलकर 


कुछ अपनों के स्नेह रूपी कटु कवच के बंधन से परे जाकर जब आत्म अनुभूति हुई कि यह स्नेह मात्र तभी तक सीमित है जब तक आप उपयोगी हैं, आपके पतन से इनको कोई फर्क नहीं पड़ेगा, प्रगतिशीलता में आपको स्नेह रूपी गंगा से आचमन करवाएँगे। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ तथाकथित अपने, आपके विपरीत कार्य करने में कभी संकोच भी नहीं करेंगे। तात्पर्य यही है कि इनको महत्व देकर एक आज़ाद परिंदे की भांति मगन होकर वही करें जिससे आत्म शांति मिले।


उड़ना मुझको पंख खोलकर


नहीं किसी से मुझे शत्रुता
नहीं किसी से ज्यादा मोह,
दी हों भले असंख्य वेदना
नहीं चाहता फिर भी द्रोह।
मूल्यों के पथ पर नहीं बिकूँगा
देदो चाहे स्वर्ण तोलकर,
मैं तो हूँ आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
 
था कभी बंधा मैं परिपाटी में
किए बहुत मैंने भी अनुनय,
अपनेपन का ढोंग रचाते
लोग मिले मुझको भी कतिपय।
ठगा गया मैं इन अपनों से
देखा उनका स्वार्थ टटोलकर,
मैं तो अब आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
 
नहीं किसी से कोई आशा
नहीं किसी का चाहूँ साथ,
उनपर भी ईश्वर दया करे
जिसने किए घात पर घात।
अब आघातों की आदत मुझको
जाओ चाहे छुरा घोपकर,
मैं तो हूँ आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
 
मेघ घटाएँ निलय निकेतन
सीमाएँ जिसकी अनन्त आकाश,
उस हारिल सा मुझको बनना
जिसको तिनके में विश्वास।
अपनी धुन में मगन ही रहना
सारी चिंता, व्यथा भूलकर,
मैं तो हूँ आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।
 

इसमें अपना सौभाग्य समझता
जो मिला मनुज जीवन उपहार,
इतनी लघु जीवन की अवधि
क्यों करूँ भला इसको बेकार।
एक दिन मृत्यु से मिलना सबको
मृत्यु न आए कभी बोलकर,
मैं तो हूँ आज़ाद परिंदा
उड़ना मुझको पंख खोलकर।

- अर्चित वशिष्ठ 

Wednesday 10 October 2018

प्रश्न कुछ विचित्र से चित्त में हैं झूलते

सभी को भलीभांति ज्ञात होता है कि मृत्यु एक अटल सत्य है, किसी किसी दिन शरीर रूपी कवच को त्यागना ही पड़ता है। परन्तु सब जानते हुए भी हम अल्पकालिक सुखों में, लालच में और कई आडम्बरों में अपना समग्र जीवन नष्ट कर देते हैं। फिर अंतरात्मा से प्रश्न उठता है कि ये सब क्यों था, क्यों मूर्ख बनकर रहे, किसके लिए ये धन संचय किया, स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करके भी क्या प्राप्त हुआ एवं शक्तिशाली बने रहने का भी क्या निष्कर्ष निकला। मृत्यु ने तो कभी किसी के साथ पक्षपात नहीं किया। विद्वान-पापी, नर-नारी, निर्धन-धनवान, राजा-रंक में कोई भी भेद करते हुए सभी को अपना आलिंगन दिया। 
हिंदी के मूर्धन्य कवि स्व शिशुपाल सिंह 'शिशु' की कविता "मरघट" से प्रेरित होकर मैंने यह कविता लिखी है |


प्रश्न कुछ विचित्र से चित्त में हैं झूलते


प्रश्न कुछ विचित्र से चित्त में हैं झूलते,
हम जन्मते भला क्यों, क्यों मृत्यु को भूलते,
क्यों भूलकर सत्य को बन रहे थे अमर,
क्यों धूल में जा मिले जो स्वयं धूल थे।

था बहुत बाहुबल, थे बहुत शूरवीर,
ठाठ थे बड़े-बड़े, बड़े महल के अमीर,
अंततः मृत्यु के सत्य से जब मिले,
उड़ रही राख अब धूल बन रहा शरीर।

आभूषणों से भरी तिजोरियाँ खोलते,
बैठ कर सेज पर रोज स्वर्ण तोलते,
जोड़ न पाए वे एक कर्म पुण्य का,
जोड़ते रह गए लाख धन दौलतें।

हैसियत बहुत बड़ी और कुल से कुलीन,
पर लड़ रहे भाई से चाहिए घर जमीन,
अंत में मौन थे और देह शांत-शांत,
तीन हाथ थी जगह पंच तत्व में विलीन।


मूछ पर ताव था नगर के नजीब थे,
उम्र ढल गई अब हाल हैं अजीब से,
आँख बंद हो गई सांस भी मंद-मंद,
और मृत्यु घूरती सामने करीब से।

धमनियों में बह रहा था रक्त जिनके बन अनल,
आवेग में थी फड़फड़ाती वो भुजाएँ अब शिथिल,
पर जान कर भी सत्य को क्यों नहीं स्वीकारते,
कि कोई भी जीवित न बचता रंक,राजा,वीर,बुज़दिल।


बच न पाए वे सिकंदर भू पर चले थे शक्ति लेकर,
बुझ गए वो सब दिए जो भी जले थे दीप्ति लेकर,
फिर भला क्यों ये देह लेकर सब अहं में फूलते,
और बनकर मूर्ख वे ही अटल सत्य को भूलते,
प्रश्न कुछ विचित्र से चित्त में हैं झूलते।



- अर्चित वशिष्ठ 

उड़ना मुझको पंख खोलकर  कुछ अपनों के स्नेह रूपी कटु कवच के बंधन से परे जाकर जब आत्म अनुभूति हुई कि यह स्नेह मात्र त...